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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

अयोध्याकाण्ड - रामचरितमानस

(1)

लाजनि लपेटी चिवनि भेद भाय भरी,
लसति ललित लोल चख तिरछानि मैं।
छवि को सदन, गोरो बदन, रुचिरभाल,
रस निचुरत मीठी मृदु मुसक्यानि मैं।
दसन दमक फैलि, हिये मोती माल होति,
पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि मैं।
आनंद की निधि जगमगति छबीली बाल,
अंगनि अनंग रंग दुरि मुरि जानि मैं॥1॥

शब्दार्थ - लाजनि = लज्जा। लपेटी = युक्त। चितवनि = दृष्टि। भेद भाय = गूढ़ भाव। लसति = सुशोभित होती है। चख = चक्षु, नेत्र सदन = भवन, स्थान। बदन = मुख। दसन = दाँत लड़कि = ललक कर। निधि = खजाना। बाल बालिका, प्रेमिका। अनंग = कामदेव। मुरि = मुड़ने में।

सन्दर्भ - प्रस्तुत छन्द रीतिकालीन कवि घनानन्द द्वारा रचित एवं विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा संपादित 'घनानन्द ग्रन्थावली से संकलित है।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कविवर घनानंद ने प्रिय गोपिका के रूप का मनमोहक चित्रण किया है।

व्याख्या - कवि घनानंद कहते हैं कि गोपिका की चितवन लज्जा से परिपूर्ण है। उसमें गूढ़ भाव भरे हुए हैं। तिरछी नजर वाले उसके चंचल और सुंदर नेत्र सुशोभित हो रहे हैं। वह अत्यधिक सुंदर है। उसका मुख गौरवर्ण का है। माथा अत्यधिक आकर्षक है और जब वह मुस्कराती है तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो रस की वर्षा हो रही हो। उसके दाँतों की कांति सर्वत्र व्याप्त है। उसके हृदय पर मोतियों की माला सुशोभित है। वह ललक कर प्रियतम से बात करने में मग्न है। कविवर घनानंद कहते हैं कि आनंद की खान वह सुंदर बाला अत्यधिक आकर्षक है और जब वह मुड़ती है तो लगता है कि उसके शरीर के एक- एक अंग में कामदेव ने निवास किया हुआ है।

विशेष-
(1) नायिका के सहज सौंदर्य का मनोहारी चित्रण इस छंद की विशेषता है।
(2) अलंकार- अनुप्रास की अद्भुत छटा दर्शनीय है।
(3) रस - श्रृंगार।
(4) गुण - माधुर्य।
(5) शब्दशक्ति - लक्षणा।
(6) भाषा - ब्रज।

 

(2)

झलके अति सुंदर आनन गौर छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छवि - फूलन की, बरषा उर ऊपर जाति है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करें कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग-अंग तरंग उठै दुति की, परिहै मनो रूप अबै धर च्वै॥2॥

शब्दार्थ - झलकै = झलकता है, दीप्त होता है, दिखाई देता है। आनन = मुख गौरे = गोरे रंग का। छके = तृप्त। दृग = नेत्र राजत = सुशोभित हो रहे हैं। कानि = कानों को। छ्वै = छूकर। बोलनि वचन, वाणि। लोल = चंचल। कलोल = क्रीड़ा। जलजावलि जलज + अवलि ॥ जलज = जल में जन्म लेने वाला। (अ) कमल, (ब) मोती। जलजावलि = (अ) कमलों की माला, (ब) मोतियों की माला। तरंग = लहर। दुति = कांति, सौंदर्य। परिहै = पड़ेगा। धर = धरणी, पृथ्वी। च्चैं = चूना, टपकना।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छंद कविवर घनानंद ने नायिका अथवा अपनी प्रिया सुजान के अंग- सौंदर्य का वर्णन किया है। नायिका के मुख, नेत्र, वाणी, केश इत्यादि की शोभा का वर्णन करने के साथ ही उसके गले में पड़ी माला के सौंदर्य से भी कवि प्रभावित होता है। नायिका के अंग-अंग में झलकता और छलकता हुआ सौंदर्य, पृथ्वी पर बरसने को तैयार है।

व्याख्या - घनानंद कहते हैं कि उसका (नायिका का अथवा सुजान का) मुख बहुत सुंदर और गोरा है। सुंदरता और गोरेपन के कारण उनका मुख दमक रहा है। उसके नेत्र तृप्त हैं, (उन्होंने प्रेमपात्र के रूपः अथवा प्रेम रस का जी भरकर पान कर रखा है) तथा कानों का स्पर्श करते हैं, अर्थात् कानों तक फैले हुए हैं। सुंदर नेत्रों का गुण है- विशालता अर्थात् आकर्ण व्यादीर्ण होना या कान तक फटे या फैले होना। किंतु कवि ने उन्हें रूप से छके हुए होने से कर्णस्पर्शी कहा है, मानो अधिक रूप का पान करने से वे उसे सह न सकने के कारण, भार से फैले जा रहे हैं, फटे जा रहे हैं।

कवि कहता है कि जब वह बोलती है तो उसके हँसकर बोलने से श्रोता को इतना सुख मिलता है कि वह समझता है कि उसके ऊपर फूलों की सुंदरता की या सुंदर फूलों की वर्षा हो रही है।

उसके केशों की चंचल लटें उसके कपोलों पर क्रीड़ा कर रही हैं। उसके गले में मोतियों की या कमलों की दुहरी माला अति सुंदर लग रही है।

उसके एक-एक अंग से सौंदर्य की लहरें उठ रही हैं। उसके सर्वांग सुंदर शरीर को देखकर ऐसा लगता है कि उसके अंग-अंग से सौंदर्य टपककर पृथ्वी पर गिरने वाला है।

विशेष -
(1) घनानंद की उर्वर कल्पना शक्ति द्रष्टव्य है।
(2) हंसि बोलनि में छवि फूलन की बरषा' बड़ा सुंदर प्रयोग है। ब्रजलोक में इस प्रकार की उक्ति प्रचलित है - 'वे बोलते हैं तो मुँह से फूल झरते हैं।
(3) रस- श्रृंगार रस।
(4) शब्दशक्ति - लक्षणा।
(5) गुण - माधुर्य।
(6) अलंकार (अ) उत्प्रेक्षा-परि है मनो रूप अबै धर च्वै। (ब) सभंगपद यमक- 'लोल कपोल'। (स) पुनरुक्तिप्रकाश अंग-अंग। (द) रूपक - हंसि .... है।

 

(3)

छवि को सदन मोद मंडित वदन-चंद
तृपित चखनि लाल, कब धो दिखायही।
चटकीली मेख करें मटकीली भीति सों ही
मुरली अधर धरें लटकत आयही।
लोचन दुराय कछू मृदु मुसक्याय, नेह
भीनी वतियानि लड़काय वतरायही।
बिरह जरत जिय जानि, आनि प्रानप्यारे,
कृपानिधि, आनंद को घन वरसाय हो॥3॥

शब्दार्थ - मोद = प्रफुल्लता। चटकीली = भड़कीली। भांति = शैली। मटकीली = चटक मटक वाले ढंग से। लटकत = मस्ती से झूमते हुए। दुराय = हिलाकर इधर-उधर मटकाकर। नेह = प्रेम से सिक्त। लड़काय = ललककर, ललक उपलाकर। लड़कना ललकना है और लड़काना ललक उपजाना। आनि = आकर। कृपानिधि = कृपा के सागर।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत कवित्त में कवि घनानन्द ने प्रेमानुरक्त गोपी के कथन का वर्णन किया है। यह श्रीकृष्ण के प्रति पूर्वानुराग का वर्णन है। उसने श्रीकृष्ण का जो रूप देखा है वह उसके मन में बस गया है। पूर्वराग की यह अभिलाप दशा है। वह चाहती है कि श्रीकृष्ण मुरली बजाते जाएं और उन्हें वह देखें॥

व्याख्या - कवि कहता है कि गोपी कह रही है कि हे श्रीकृष्णलाल ! आप कब पधारेंगे। सौंदर्य के आगार प्रसन्नता से अलंकृत अपना मुखचंद्र इन प्यासे नेत्रों (चकोरों) को कब दिखाएँगे। भड़कीला वेश धारण किए हुए चटक मटक के रंग-ढंग से युक्त हो अधर पर बांसुरी रखे मस्ती से झूमते हुए इधर कब आएंगे। केवल आपके दर्शनों और मुरली की तान की ध्वनि का ही अभिलाप नहीं है आपसे संलाप करने की इच्छा भी है। आप अपने नेत्र मटकाते हुए कुछ सुकुमारतामय मुसकरा कर स्नेहसिक्त बातें करके मेरे मन में ललक उपजाकर मुझसे कब बातें करेंगे। केवल बातें ही नहीं आपकी वह कृपा मुझे कब प्राप्त होगी जब आप अपने आप मुझे विरह में जलती जानकर हे प्राणप्रिय करुणा सागर ! आनंद के बादल से (संतोष तृप्ति की) दृष्टि करेंगे।

विशेष -

(1) यहाँ कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम की अतिशयता का वर्णन किया गया है॥
(2) रस श्रृंगार
(3) शब्दशक्ति - लक्षणा।
(4) गुण - माधुर्य।
(5) अलंकार - 'चटकीली....सो ही में उपमा, शेष में अन्त्यानुप्रास।
(6) भाषा - ब्रजभाषा।

 

(4)

वह मुसक्यानि, वहै मृदु वतरानि, वहै
लड़कीली दानि आनि उर में उग्ररति है।
वहे गति लैन ली वजावनि ललित वेन,
वह हँनि देन, हियरा तें न अरति है।
वहै चतुराई सों चिताई चाहिवे की छवि,
वहै छेलताई न छिनक विसरति है।
आनँदनिधान प्रानप्रीतम सुजानजू फी,
सुधि सब भौतिन सों वेसुधि करती है॥4॥

शब्दार्थ - लड़कीली = ललक वाली। अरति = अड़ती है, अवस्थित हो जाती है। गति = (मस्ती) से चलना। वन = वेणु, बाँसुरी। चिंताई = चैतन्य की हुई, जगाई हुई। चाहिवे की = देखने की। छेलताई = रंगोलापन। निधान = कोश, खजाना। सुधि = स्मृति। वेसुधि = बेहोशी, विस्मृति।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कवि घनानन्द ने गोपी की विरहिणी दशा का वर्णन किया है। गोपी श्रीकृष्ण के साथ बिताए सुखद क्षणों की स्मृति में लीन हैं। प्रिय को उसने संयोगावस्था में जिन-जिन मुद्राओं में देखा है वे उसी में अंतःकरण में स्थित है। मुसकराना, बातें करना, ललकवाली टेय, मस्ती से चलना, वेणुवादन, हँसना, चातुर्यमयी आँखों से देखना, छैलापन उसकी स्मृति के विषय हैं।

व्याख्या - कवि कहता है कि प्राणप्रिय सुजान अर्थात् श्रीकृष्ण की स्मृति सब प्रकार से विस्मृति उत्पन्न करती है अर्थात् श्रीकृष्ण की याद में गोपी बेसुध हो जाती है, उसे कुछ और याद नहीं रहता है। उसे बस उनका अर्थात् श्रीकृष्ण का वह मुसकुराना, वह कोमलता युक्त बातें करना, उनकी वह ललकवाली टेव की याद उसके हृदय में अड़ी रहती है। उनका वह हावभावमय चलना, वह सुंदर बाँसुरीवादन और वह हँसी उसके हृदय से निकलती ही नहीं है। चतुराई से भरी उनकी वह मेरी ओर देखने की छटा और वह छैलापन मुझे क्षण भर को भी नहीं भूलता। उनकी ये सारी स्मृतियाँ मुझे बेसुध किए देती हैं।

विशेष-
(1) सुजान' शब्द राधा और कृष्ण दोनों के लिए प्रयुक्त होता है।
(2) घनानन्द की प्रेमिका का नाम श्री सुजान है। यहाँ कवि ने लौकिक प्रेम को पारलौकिक रूप में प्रस्तुत किया है। यह कवि की श्रेष्ठता का प्रमाण है।
(3) भाषा - ब्रजभाषा
(4) रस - वियोग श्रृंगार।
(5) अलंकार - 'सुधि... बेसुधि में विरोधाभास, अनुप्रास।
(6) शब्दशक्ति लक्षणा।
(7) गुण - माधुर्य।

 

(5)

जासों प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह,
कैसे करि जिय की जरनि सो जताइये।
महा निरदई दई कैसे कैं जिवाऊँ जीव,
वेदन की बढ़वारि कहाँ लों दुराइये।
दुख को बखान करिवे कौं रसना कैं होति,
ऐपै कहूँ बाकी मुख देखन न पाइये।
रैन दिन चैन को न लेस कहूँ पैये, भाग,
आपने ही ऐसे दोष काहि धौं लगाइये॥5॥

शब्दार्थ - निपट = अत्यधिक कैसे किस प्रकार। जताइये = जतलाऊँ, बताऊँ! दई = दैव। वेदन = वेदना, पीड़ा। बढ़वारि = बढ़ती अधिकता। दुगइये = छिपाऊँ। बखान = कथन। कै = यदि कहीं। ऐपै = इतने पर भी। भाग = भाग्य। वाहि = किसे। वौं = न जाने।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत कवित्त में कवि घनानन्द ने प्रिय के विषम प्रेम की चर्चा की है। इसमें एक ओर प्रिय की उदासीनता और दूसरी ओर प्रेमी की एकनिष्ठता का निरूपण है।

व्याख्या - कवि कहता है कि जिस प्रिय से मैंने प्रीति की, उसने मुझसे तो बदले में प्रेम नहीं किया, उलटे उसने निष्ठुरता से अत्यंत प्रेम कर लिया। इस प्रकार जो जलन हृदय में होती है उसे मैं किस प्रकार जताऊँ। हे देव। वह निर्दय ही नहीं महा निर्दय है, इसलिए अपने जी को कैसे जिलाऊँ। महानिर्दय (हिंसक) भला कैसे जीने देगा। यदि यह कहा जाए कि वंदना को छिपा रखो तो वह तो निरंतर बढ़ती ही रहती है। बढ़कर शरीररूपी घट से बाहर हो जाना चाहती है, इसलिए उसे छिपाये रखना भी संभव प्रतीत नहीं होता। छिपाने का भरसक प्रयास किया गया: पर छिपाने से छिपे तब न। मेरे वश की बात नहीं रह गई, वह इतनी अधिक है कि आप दूसरों को प्रकट हो जाना चाहती है। यदि कोई कहे कि क्या वेदना है कहकर बताओ तो उसका कथन कैसे किया जाए ! वेदना की पीड़ा इतनी अधिक है कि जिह्वा ने अपना कार्य करना ही छोड़ दिया है। अब कहूँ भी तो किस जीभ से कहूँ। यदि प्रिय के दर्शन हो जाते तो कुछ तृप्ति मिलती और मेरा किसी प्रकार काम बन जाता। पर उस प्रिय का मुख देखने में भी असमर्थ हूँ। उनके दर्शन मिलते ही नहीं हैं। अब यह हालत है कि रात-दिन चैन का लेशमात्र भी नहीं मिलता। कुछ कहना- सुनना तभी हो सकता है जब चित्त कुछ प्रकृतिस्थ अर्थात् शान्त हो, लेकिन यहाँ तो चित्त शान्त करने का अवसर ही नहीं प्राप्त होता। कवि कहता है कि इसमें क्या किसी को दोष दूँ। प्रिय को दोष दिया वह भी व्यर्थ ही दिया। यह तो सब अपने भाग्य का ही दोष है। मेरे भाग्य में तो इस प्रकार वेदना सहना ही लिखा है।

विशेष-
(1) यहाँ कवि के प्रेम की पराकाष्ठा अथवा अनन्य प्रेम का वर्णन है।
(2) रस - वियोग श्रृंगार
(3) गुण - माधुर्य
(4) शब्दशक्ति - लक्षणा।
(5) भाषा - ब्रजभाषा।
(6) अलंकार - अनुप्रास।

 

(6)

भोर ते साँझ लौं कानन ओर, निहारति बाबरी नैकु न हारति।
साँझते भोर लो तारनि ताकिबौ, तारनि सो इकतार न टारति।
जो कहूँ भावतौ दीठि परै घन आनन्द आँसुनि औसर गारति।
मोहन, सोहन, जोहन की लगियै रहै आँखिने के उर आरति॥6॥

शब्दार्थ - भोर = सबेरा। साँझ = संध्या, शाम। लौं = तक। कानन = वन। ओर = तरफ। निहारति = देखती रहती। नैंकु = तनिक भी। निहारित = नहीं थकती। तारनि = तारों को। ताकिबौ = ताकना, देखते रहना। तारिन = आँखों के तारे, पुतलियाँ। इकतार = एकटक निरंतर। न टारति = नहीं हटाती। जो कहूँ = यदि कभी। भावतो = प्रिय, मन को सुहाने वाला। दीठिपरै = दिखाई पड़ता है। घन आनन्द = कवि घनानंद, अत्यन्त प्रसन्नता। औसर = अवसर। गारति = गला देती है, सुअवसर पूँवा देती है। मोहन = प्रिय कृष्ण। सोहन = शोभन, सुंदर, सामने। जोहन की = देखने की। लगियै रहै = लगी ही रहती है। उर = हृदय। आरति = करुण, इच्छा, लालसा।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस छंद में प्रेम की पीर के विशेषज्ञ घनानंद ने एक विरहिणी की आकुलता और अनुभावों का बड़ा सजीव और मार्मिक वर्णन किया है।

व्याख्या - कवि घनानंद कहते हैं यह बावली विरहिणी प्रातः काल से सायंकाल तक, प्रिय कृष्ण की प्रतीक्षा करती हुई, वन की ओर देखते हुए थकती नहीं है। इस प्रकार सायं से प्रातः तक आकाश में तारों को एकटक निहारती हुई पल के लिए भी अपनी दृष्टि नहीं हटाती है। यदि कृष्ण - दर्शन को लालायित इस विरहिणी को कभी इसके मनभावन सामने दिख जाते हैं तो यह पगली उस सुअवसर को अपने आँसुओं में आँवा देती है। इसके नेत्रों से बहते आँसू इसे जी भरकर अपने प्रियतम को देखने नहीं देते। यही कारण है कि इसकी आँखों को सुन्दर मनमोहन को देखने की अथवा मनमोहन को सामने देखने की इच्छा-लालसा कभी संतुष्ट नहीं हो पाती। इसके नेत्र अपने परम प्रिय को सदा अपने सामने ही देखते रहना चाहते हैं।

विशेष-
(1) वियोगी घनानंद ने इस छंद में स्वयं को ही एक व्यथित वियोगिनी का रूप प्रदान किया है।
(2) भुक्तभोगी कवि से अधिक एक विरही हृदयी दशा और कौन वर्णन कर सकता है।
(3) रस अपलक बाट जोहना', 'रात' को तारे देखते हुए बिताना, 'प्रियदर्शन होते ही अविरस अश्रुधार बहाना' और 'आँखों में सदैव प्रिय को सामने देखने की अतृप्त लालसा बनी रहना आदि अनुभावों से छंद में वियोग श्रृंगार को साकार कर दिया है।
(4) अलंकार - अनुप्रास
(5) भाषा - ब्रजभाषा
(6) गुण - प्रसाद और माधुर्य
(7) शब्दशक्ति - लक्षणा।

 

(7)

भय अति निठुर, मिटाय पहिचानि डारी,
याही दुख हमैं जक लागी हाय-हाय है।
तुम तौ निपट निदरई गई भूलि सुधि,
हमें सूल - सेलनि सो क्यौं हूँ न भुलाय है।
मीठे-मीठे बोल बोलि, ठगी पहिलें तौ तब,
अब जिय जारत, कहौ धौं कौन न्याय है।
सुनी है कि नाहीं, यह प्रकट कहावति जू,
काहू कलपाय है, सु कैसे कल पाय है॥7॥

शब्दार्थ - निठुर = निष्ठुर, निर्दय। जक = रट निपट = पूर्णतः। सूल-सेलन = शूलों की चुभन, उपेक्षा की पीड़ा। क्यों हुँन = कैसे भी नहीं। जिय = जी, मन जारत = जलाते हो। प्रगट = प्रचलित, सुपरिचित। का = किसी को। कलपाय = कष्ट देकर। कल पाय= सुख पा सकता है।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत छंद में कवि घनानंद अपने प्रिय की निष्ठुरता और उपेक्षा से दुःखी होकर उसे ताने दे रहा है।

व्याख्या - कवि अपने प्रिय (सुजान) को उलाहना देते हुए कहता है कि वह बहुत निष्ठुर हो गया है। उसने तो उसको पहचानना भी भुला दिया है। पुराने मधुर सम्बन्ध को उसने हृदय से निकाल दिया है। यही कारण है कि बेचारा कवि दिन-रात हाय-हाय पुकारता रहता है। कवि कहता है तुम तो पूरी तरह निर्दयता पर उतर आए हमें भुला दिया, परन्तु तुमने हमें जो उपेक्षा के काँटों से छेदा है। उस असहनीय चुभन को हम कैसे भूल जाएँ? पहले तो हमें बड़ी मधुर मधुर बातों से ठग लिया और अब ऐसे निष्ठुर व्यवहार से हमारे जी को जला रहे हो। भला यह कैसा न्याय है? यह तो सरासर घोर अन्याय है। तुमने यह सुपरिचित कहावत तो सुनी होगी कि जो दूसरों को कलपाता है, पीड़ा पहुँचाता है, वह स्वयं भी सुखी नहीं रह पाता।

विशेष -
(1) जब कोई प्रिय प्रेमी को पहचानने से भी इन्कार कर दे तो मधुर अतीत को छाती से लगाकर जीने वाले प्रेमी पर क्या बीतेगी? कवि का हाल कुछ ऐसा ही है। निष्ठुर प्रिय ने पहचान भी भुला दी है।
(2) अन्य रीतिकालीन कवियों के कल्पित वियोग वर्णन और घनानंद के इस स्वयं भोगे गए, वियोग वर्णन में भला क्या समानता हो सकती है? इसकी हर वेदना में सच्चाई है।
(3) मुहावरों और लोकोक्तियों से भाव प्रकाशन प्रभावशाली बन गया है।
(4) 'हाय हाय' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, 'निपट निरदई गई', 'सूल सेलनि', 'बोल बोलि', 'जिय जारत' में अनुप्रास अलंकार, तथा 'कलपाय' में यमक अलंकार है।

 

(8)

हीन भए जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समानै।
नीर सनेही को लाय कलंक निरास है, कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सु क्यों समुझे जड़ मीत के पानि परे कों प्रमानै।
या मन की जु दसा घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जानै॥8॥

शब्दार्थ - हीन भएँ जलु = जल से वियुक्त होने पर जल से बिछुड़ने की। मीन = मछली। अधीन = विवश, बेबस। सनेही = प्रेमी। रीति = पद्धति। सु = वह। जड़ = मूर्ख। मीत = मित्र, प्रिय। पानि परे कों = हाथ में पड़ने को। समानै = समानता। प्रमानै = प्रमाणित करता है। जीवन की जीवनि = प्राणों की प्राण. प्राणों को जीवित रखने वाली।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद्य में प्रेम की पीर के गायक घनानन्द प्रेम की कसौटी को मानते हैं। यहाँ उन्होंने मछली के प्रेम की अपेक्षा अपने प्रेम की उच्चता प्रतिपादित करते हुए उसके चरम औदात्य की उद्घोषणा की है।

व्याख्या - घनानन्द कहते हैं मछली जल से बिछुड़ने पर विवश होकर अपने प्राणों का परित्याग कर देती है। वस्तुतः उसका प्रेम मेरे प्रेम के समक्ष कम है। उसकी विवशता मेरी व्याकुलता का सामना नहीं कर सकती। वह (मछली) अपने स्नेही जल पर अविश्वास करके उसके स्नेह प्रेम को कलंकित करके, निराश होकर प्राण त्याग देती है। सच तो यह है कि प्राण त्याग देना प्रेम की उच्चता का प्रमाण नहीं है। प्रेम का उत्कृष्ट रूप तो प्रिय से बिछुड़ कर विरह की पीड़ा सहने में है। जीवित रहने में है मर जाने में नहीं।

मछली तो निश्चय ही मूर्ख है। वह प्रेम की उच्च रीति को क्या जाने? वह तो प्रियतम रूपी जल के हाथों में पड़े रहने तक ही अर्थात् वह संयोगवस्था को ही प्रेम का आधार मानती है, उसके पश्चात वियोग में नहीं। वह तो वियोग सहन ही नहीं कर पाती। जबकि प्रेम रीति और निष्ठा वियोग द्वारा ही पहचानी जाती है।

घनानन्द कहते हैं कि प्रिय के वियोग में मेरे मन की जो दशा-अवस्था है, जिस विरह व्यथा की वेदना मुझे सहनी पड़ रही है, उसे प्रिय के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता। यह प्रिय सुजान मेरे प्राणों के भी प्राण हैं। अतः वही मेरे प्राणों में छिपी अन्तर्व्यथा और प्रेम को जानते हैं।

विशेष -
(1) यहाँ कवि ने प्रेम-विषयक आदर्श व्यक्त किया है।
(2) मीन और मानव के प्रेम की तुलना करने पर मानव का प्रेम श्रेष्ठ और उच्चतम सिद्ध होता है।
(3) यहाँ कवि की दृढ़ता, एक निष्ठता तथा अनन्यता का निदर्शन होता है।
(4) विरह प्रेम की कसौटी है। जो इस कसौटी पर खरा उतरता है, वही सच्चा प्रेमी सिद्ध होता है।
(5) विरह प्रेम की जागृत गति है और मिलन उसकी सुषुप्तावस्था।
(6) भाषा - ब्रज।
(7) छन्द - सवैया
(8) रस - विप्रलम्भ श्रृंगार।
(9) गुण - प्रसाद।
(10) अलंकार - अनुप्रास, व्यतिरेक, यमक।
(11) शब्द शक्ति - व्यंजना और अभिधा।
(12) भावसाम्य - घनानन्द के अन्य पद में भी मीन से अपने प्रेम की उच्चता दर्शाते हुए कहा है -
"मरिबो बिसराम गर्ने वह तौ,
यह बापुरो तज्यौ तरसै '
"बिडो भिलें मीन-पतंग दसा कहा
मो जिय की गति की परसै।"
महाकवि सूर की निम्न पंक्ति भी इस पद के भाव से तुलनीय हैं -
"ऊधौ विरहौ प्रेम करै।"

कपिलदेव इस भाव को कुछ इस तरह से दर्शाते हैं -

"लौटि लौटि परति करौटि खटपाती लै लै,
सूखै जल सफरी ज्यौं सेज पै फरफराती।"

(9)

मीत सुजान अनीति करौ जिन, हा हा न हूजियै मोही अमोही।
दीठि को और कहूँ नहि ठौर फिर दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान बटोही।
हो घनआनन्द जीवन मूल दई कित प्यासनि भारत मोही॥6॥

शब्दार्थ - मीत = मित्र। सुजान = सुज्ञान, अच्छे जानकर, श्री कृष्ण का विशेषण। अनीति = अनीति, अन्याय। जिन = मत, नहीं। हा हा = खेद, दुख दर्शाने का अव्यय। दृग = नेत्र। अमोहि = मोह रहित, प्रेम शून्य रूप = छवि, शोभा। दोही = दुहाई। एक = केवल। बिसास = विश्वासघात। टेक = सहारा, आसरा। लगि = आशा। बटोही = पथिक, राही। रहे = बसे। जीवन मूल्य = जल के भंडार, प्राण तत्व। दई = हे देव। प्यासिन = (अनेक प्रकार की प्रेम जन्य लालसा) प्यास।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद्य में कविवर घनानन्द ने मित्र के आचरण का स्मरण कराते हुए प्रिय के अनीति पूर्ण व्यवहार का वर्णन किया है।

व्याख्या - कविवर कहते हैं कि हे प्रिय मित्र सुजान ! आप भी मेरे मित्र हैं और सुजानी भी, मेरे साथ अनीति, अन्याय न करें। हाय ! कितने दुःख का विषय है कि आपने तो दर्शन देना भी त्याग दिया है, आप तो मेरी ओर से विमोही हो गये हैं। क्या आप यह बात नहीं जानते कि मेरे नेत्रों में किसी अन्य का कोई स्थान नहीं रह गया है। इनमें तो आपके सौन्दर्य की दुहाई फिर गई है, इन नेत्रों में सर्वत्र आपका रूप ही छाया हुआ है। फिर इन नेत्रों के लिए न कहीं टिकने का स्थान रह गया है न किसी को टिकाने का।

कवि आगे कहता है कि फिर भी आपने मेरे साथ विश्वासघात किया (आने की अवधि देकर भी नहीं आये और अन्य से प्रेम सम्बन्ध जोड़ लिया तो) भी आपके हम विश्वासघात में भी विश्वास का आश्रय लिए आशा लगाये हुए मेरे पथिक प्राण बसे हुए हैं अर्थात् मेरे प्राणों ने तो पथिक का बाना पहन लिया है। वह तो प्रिय मिलन की आशा और विश्वास पर ही टिके हुए हैं। आप तो जल के भण्डार और आनन्द के मेघ हो। फिर मुझे प्यासा क्यों मार रहे हैं? मेरे प्राण तत्व आनन्द दायक होकर भी मेरे प्राणों को क्यों संकट में डाले हुए हैं और क्यों लालसा जन्य वेदना का दुःख दे रहे हो।

विशेष -
(1) मित्र कभी अनीति नहीं करता। भूलवश उससे अनीति हो सकती है लेकिन यदि मित्र सुजान है तो इसकी सम्भावना नहीं रह जाती।
(2) विश्वासघात पर भी विश्वास करने का प्रयोग विलक्षण है।
(3) यहाँ एकांगी प्रेम की व्यंजना हुई है।

(4) भाषा - ब्रज।

(5) छन्द - सवैया ।
(6) रस - विप्रलम्भ श्रृंगार
(7) अलंकार - उपमा, श्लेष, पुनरुक्ति प्रकाश, असंगति।
(8) शब्दशक्ति - अभिधा और लक्षणा।
(9) गुण - प्रसाद।

(10)

पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार पगी।
अब लाय बियोग की लाय बलाय बढ़ाय, बिसास दगानि दगी।
अँखियाँ दुखियानि कुबानि परी न कहुँ लगै, कौन घरी सुलगी।
मति दौरि की, न लहै ठिकठौर, अमोही के मोह मिठासठगी॥10॥

शब्दार्थ - पहिले = संयोगावस्था में घन आनंद = आनंद के बादल, कवि। लाय = लगाकर। लाय = आग। बलाय = बला, विपत्ति। बिसास = विश्वासघात, धोखा। दगी = दागी, जलाई। कुबानि = कुटैव, व्यसन। घरी = समय। दौरि = दौड़ते-दौड़ते, विचारों की दौड़ लगाते। ठिकठौर = ठौर ठिकाना। अमोटी = निर्मोही। मोह = लगाव। मिठासठगी = मोह की मिठास में ठगी हुई।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत कवित्त में कवि घनानन्द ने प्रिय की निर्ममता और अपनी विवशतापूर्ण स्थिति का वर्णन किया है।

व्याख्या - कवि कहता है कि प्रिय ने जो पूर्ण आनन्द रूप है, उन्होंने पहले तो आनन्द की दृष्टि करके और उस दृष्टि के जल से चातुर्यपूर्वक मुझे सींचकर अर्थात् अपने प्रेम की वर्षा से मुझे भिगाकर अत्यन्त प्यार में पगी हुई बातें कहीं अर्थात् संयोगावस्था में उन्होंने मुझे अपने आनन्ददायक रूप और प्रेमपूर्ण वार्ता से तृप्त किया। अब विरहावस्था में विरह की आग लगाकर और उस आग के द्वारा कष्ट की वृद्धि करके फिर विश्वासघात के कपट से जलाया अर्थात् प्रिय के विरह की वेदना ही इतनी कष्टदायक है, उस पर से उनके विश्वासघाती व्यवहार से और भी अधिक कष्ट होता है। यह तो उस प्रिय की करतूत हुई। उधर मेरी दुखिया आँखों को उन्हें देखने की ऐसी कुटेव (बुरी आदत) पड़ी हुई है कि वे कहीं और लगती ही नहीं हैं अर्थात् उन्हें अन्य किसी और को देखना अच्छा नहीं लगता है। यह मुझ पर कैसी घड़ी आई है अर्थात् कैसा बुरा समय आ गया है कि न तो प्रिय ही अनुकूल हैं और न अपनी आँखें ही ऐसा व्यवहार कर रही हैं, जिससे मेरा कष्ट कम हो सके। रही बुद्धि की बात, वह तो बेचारी विचारों की दौड़ लगाते-लगाते थक गई पर उसे कहीं भी कोई ठहराव या ठिकाना नहीं मिल सका है। वह तो उस अमोही प्रिय के मोह की मिठास में ऐसी ठगी गई कि उस मिठास के व्याप्त होने से उसने अपनी सोचने-विचारने की आदत ही त्याग दी है।

विशेष -

(1) यहाँ कवि ने प्रिय के बदले व्यवहार के कारण हुए कष्ट का वर्णन किया है।
(2) प्रेम की पराकाष्ठा का अभूतपूर्व चित्रण है।
(3) गुण - माधुर्य।
(4) शब्दशक्ति - लक्षणा
(5) भाषा - ब्रजभाषा।
(6) रस - वियोग श्रृंगार।
(7) अलंकार - 'लाय लाय बलाय में लाय में यमक, 'सीचि दगी, 'आँखियाँ.... न कहूँ लगै', 'अमोही.... मोह में विरोधाभास आदि।
(8) छन्द कवित्त।

 

(11)

घनआनंद रस ऐन, कहो कृपा निधि कौन हित।
मरत पपीहा नैन, बरसौ पै दरसौ नहीं॥ 22॥

शब्दार्थ - रस = जल, प्रेम ऐन = अयन, घर। निधि = कोश, खजाना। कौनहित = यह कैसा प्रेम है। पपीहा = रूपी चातक। बरसौ = जल बरसते हैं, अनुकूलता दिखाते हैं। पै = परन्तु। दरसौ = दर्शन। नहीं = न।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस छन्द में कवि घनानन्द ने प्रिय के दर्शन के अभाव में प्रेमी के नेत्रों के दुःख का वर्णन किया है। वह अपने आप से ही बातें कर रहे हैं।

व्याख्या - कवि कहता है कि हे प्रिय, आनन्द के घन ! आप रस की खान हैं और कृपा के भण्डार हैं, जो ऐसा रस की खान और कृपा का कोश हो, लेकिन उसकी यह कैसी वृत्ति है या कैसा प्रेम है, जो मेरे नेत्ररूपी चातक मर रहे हैं। आप बरसते तो हैं पर उसे दिखाई नहीं देते। यह नेत्ररूपी चातक केवल जल ही नहीं चाहता है, वह आपके दर्शन भी चाहते है। इनकी तृप्ति बिना दर्शन के नहीं हो सकती है।

विशेष -

(1) बादल बरसते तो हैं परन्तु दिखाई नहीं देते। इसी प्रकार घनानन्द से प्रिय प्रेमपूर्ण व्यवहार तो करते हैं, लेकिन दर्शन न देकर उसके कष्ट बढ़ा रहे हैं।
(2) विरहावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है।
(3) भाषा - ब्रजभाषा।
(4) रस - वियोग श्रृंगार।
(5) छन्द- सोरठा।
(6) अलंकार 'कहो कृपानिधि कौन' में अनुप्रास', 'पपीहा नैन' में उपमा है।

 

(12)

पहचानै हरि कौन, मो से अनपहचान कौं।
त्यौं पुकार मधि मौन, कृपा-कान मधि नैन ज्यों॥ 22॥

शब्दार्थ - हरि = ईश्वर। अनपहचान = अपरिचित, अनजान। पुकार = मौन में ही पुकार। कृपा-कान = जैसे नेत्रों में कृपारूपी कान लगे हैं।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - कवि घनानन्द ने इस छन्द में बताया है कि केवल ईश्वर ही अपने भक्त को पहचान सकते हैं, अन्य कोई नहीं, अतः उनसे पुकार की जा रही है।

व्याख्या - कवि कहता है कि हे हरि ! मुझे संसार में कोई पहचान नहीं सकता। मैं इस संसार के लिए बिल्कुल अपरिचित हूँ। संसार को जैसे लोगों को पहचानने की आदत है, मैं वैसा नहीं हूँ। मैं उनसे बिल्कुल अलग हूँ। लेकिन आप मुझे इसलिए पहचान सकते हैं, क्योंकि मेरी पुकार मौन में है। विरह के कारण मैं इतने कष्ट में हूँ कि मैं चुपचाप पड़ा रहता हूँ। चुपचाप पड़े रहने वाले को भला यह जगत् कैसे पहचान सकता है। पर आपके नेत्रों में कृपा रूपी कान लगे हुए हैं, जिससे आप मेरे चुपचाप होने पर भी अपने कानों से मेरी पुकार सुन सकते हो। इतना ही नहीं, उस वेदना की पुकार को सुनकर उसे दूर करने के लिए कृपा भी करते हो।

विशेष-

(1) यहाँ कवि की मौन साधना का चित्रण किया गया है।
(2) संसार बनावटी-दिखावटी लोगों को ही पहचानता है।
(3) भाषा - ब्रजभाषा।
(4) रस - वियोग श्रृंगार।
(5) छन्द - सोरठा।
(6) अलंकार - 'ज्यों........ज्यों' में उपमा।
(7) भावसाम्य - किसी शायर ने भी कहा है -

"मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन।

आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन।'

- निदा फाजली।

 

(13)

अन्तर-आंच उसास तचै अति, अंग उसीजै उदेग की आस।
ज्यौं मसोसनि ऊमस क्यों हूँ कहूँ सुधरै नहिं थ्यावरन॥
नैनउ धारि दियें बरसैं घनआनन्द छाई अनोखियै पावस।
जीवनि मूरति जानको आनन है बिन हरें सदाई अमावस॥

शब्दार्थ - अन्तर = हृदय। आंच = ताप। उसास = उच्छवास या श्वांस। तचै = तपना, गर्म होना। उसीजै = उबलना। उदेग = व्याकुलता, बेचैनी, उद्वेग। आस = वाष्प, भाप। ज्यौ = जीव कहलाया = गर्मी से कुम्हलाया हुआ। मसोसनि = अन्दर ही अन्दर घुटना। ऊमस = वायु के न चलने पर गर्मी से उत्पन्न घुटन, उमस। क्यौं हूँ = कैसे भी। कहूं = कहीं भी। सुधरै नहिं = वह धारण नहीं करता। नैनउ = नेत्र भी। धारि दियें = धारा प्रवाह, धारासार। आनन = मुख हेरे = देखने पर। सदाई = सदैव। अमावस = अमावस्या, काल रात्रि, अंधेरी रात, नैराश्यमय जीवन।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में कविवर ने विरह - विदग्धता और अश्रु वेग का अतीव मार्मिक एवं अनुभूति परक चित्रण किया है।

व्याख्या - कवि कहता है कि प्रिय के विरह की दाह हृदय में समाहित हो गई है। उसके ताप से श्वांसे अत्यधिक गर्म हो रही हैं, अन्तस की विरहाग्नि से उच्छ्वास भी तपने लगते हैं। मन में व्याकुलता की वाष्प उड़ने लगती है जो अंग-प्रत्यंग को उबाल दे रही है।

जीव या प्राण आंतरिक घुटन एवं व्याकुलता के कारण विकल हैं। जिस प्रकार साधारण जीव या प्राणी ग्रीष्म दाह और उसकी उमस के कारण तड़पते हैं। उसी प्रकार विरही के प्राण विदग्ध होकर तड़प रहे हैं। विरही के प्राणों को किसी प्रकार से भी कहीं भी धैर्य और मौन नहीं मिलता।

विरही के नेत्र में धारा प्रवाह वर्षा कर रहे हैं। कविवर घनानंद कहते हैं कि यह अनोखी वर्षा ऋतु छा गई है जो मुझे चारों ओर से घेर रही है।

प्रिय सुजान प्राण-प्रतिमा है, पर वह अमावस्या में, जैसे चन्द्र लक्षित नहीं होता, कभी लक्षित नहीं होते। उन प्रिय के दर्शन न होने के कारण अमावस्या की रात्रि के समान घोर अंधकार मुझे घेर रहा है अर्थात् सब ओर नैराश्य ही नैराश्य है।

विशेष -

(1) उपर्युक्त पद्य में कवि ने वियोग की अतीव मार्मिक स्थितियों, अवतारणा तथा आन्तरिक विरह की अनूठी व्यंजना प्रस्तुत की है।
(2) ग्रीष्म कालीन ताप, उमस, घुटन आदि का सजीव एवं वैज्ञानिक चित्रण हुआ है।
(3) विरही के अश्रुपात और वर्षा का सुन्दर तथा सटीक आरोपण हुआ है।
(4) भाषा - ब्रजभाषा।
(5) रस - वियोग श्रृंगार।
(6) छन्द- सवैया।
(7) अलंकार - अनुप्रास, रूपक, उत्प्रेक्षा।
(8) भावसाम्य - कविवर घनानन्द की ही निम्नलिखित पंक्तियाँ तुलना की दृष्टि से सटीक जान पड़ती हैं -

"अंतर उद्वेग-दाह, आँखिन प्रवाह आंसू।
देखी अटपटी चाह भी जनि दहनि है।"

 

(14)

जान के रूप लुभाय के नैननि बेंचिकरी अधबीच ही लौंडी।
फैलि गई घर बाहिर बात सु नीकें भई इन काज कनौंडी।
क्यों करि थाह लहै घन आनन्द चाह नदी तट ही अति औंडी।
हाय दई ! न बिसासो सुनै कछु है जग बाजति नेह की डौंडी॥ 25॥

शब्दार्थ - जान = सुजान, प्रिय। रूप = सौन्दर्य, रूपा, द्रव्य। नैननि = नेत्र रूपी दलालों ने। अधबीच = आधे रास्ते में ही। नीके = भलीभाँति। इन काज = इनके कारण। कनौडी = दुर्बल, बदनाम। तट ही = किनारे पर ही। औंडी = गहरी। बिसासी = विश्वासघाती। डौंडी = डुग्गी।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कवि घनानन्द ने प्रिय के व्यवहार के विषय में वर्णन किया है कि सारा संसार जानता है कि वह उससे प्रेम करता है, लेकिन केवल वही नहीं जानता।

व्याख्या - कवि कहता है कि इन नेत्र रूपी दलालों को सुजान के रूप का लोभ हो गया। उस लोभ में पड़कर उस रूप की बार-बार देखने की इच्छा ने मुझे अधबीच में ही दासी बना डाला। यह बात घर-बाहर चारों ओर फैल गई। अपने परिवार में भी और अन्य लोगों को भी इस बात का पता चल गया। अपने-पराए सभी इस बात को जान गए। इन नेत्रों के कारण मुझे कितना बदनाम भी होना पड़ा। इधर इस प्रेम की ऐसी अथाह स्थिति है कि पता लगाना भी कठिन है। उसकी थाह का पता तो तब चले, जब कोई डुबकी मारने वाला हो। जो डूबने का भय करेगा, वह भला उसकी थाह कैसे और क्या लगा सकेगा। प्रेम की डुग्गी (ढिंढोरा) तो जग भरी में बज गई अर्थात् सबको पता चल गया, पर वह प्रिय ऐसा विश्वासघाती है कि ऐसा व्यवहार करता है कि जैसे उसने कुछ सुना ही न हो, जैसे उसके अनुकूल कुछ हुआ ही न हो।

विशेष -

(1) यहाँ कवि ने सुजान के रूप-सौन्दर्य और बाह्य दिखावे का लौकिक वर्णन किया है।
(2) प्रेम की थाह का पता लगाना अत्यन्त कठिन है।
(3) भाषा ब्रजभाषा।
(4) गुण प्रसाद- माधुर्य।
(5) शब्दशक्ति व्यंजना।
(6) रस वियोग श्रृंगार।
(7) छन्द - सवैया
(8) अलंकार - रूपक, श्लेष, विशेषोक्ति।

 

(15)

जानराय ! जानत सबै अंतरगत की बात।
क्यों अजान लौं करत फिरि, मो घायल पर घात॥ 26॥

शब्दार्थ - जानराय = ज्ञानियों में श्रेष्ठ, सुजानराय चतुरों के राजा। अंतरगत की = अन्तःकरण की, हृदय की। घात = आघात, चोट।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत छन्द में कवि घनानन्द ने प्रिय के प्रति उलाहना दी है कि वह मेरे प्रेम को जानने के बाद भी अनजानों जैसा व्यवहार करता है।

व्याख्या - कवि कहता है कि हे सुजान राय ! आप मेरे मन की सारी बातें जानते हैं। आपको यह भली प्रकार से पता है कि मैं घायल हूँ। घायल पर चोट करना अनुचित होता है। इसे भी आप जानते होंगे क्योंकि चतुरों के राजा जो ठहरे। फिर भी आप मुझ घायल पर आघात कर रहे हो। यह अनजानों की तरह आचरण क्यों कर रहे हो। यह बात तो वह हुई कि आपके नाम और आचरण में वैषम्य है अर्थात् नाम सुजान राय और आचरण नासमझी वाला।

विशेष -
(1) यहाँ कवि ने दर्शाया है कि प्रिय के नाम और आचरण में पर्याप्त अन्तर है।
(2) भाषा - ब्रजभाषा।
(3) रस - वियोग श्रृंगार।
(4) गुण - प्रसाद एवं माधुर्य।
(5) शब्दशक्ति - व्यंजना।
(6) छन्द - दोहा
(7) अलंकार - विरोधाभास, दृष्टान्त, अनुप्रास।

 

 

 

 

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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